परम वीर चक्र से सम्मानित वीर अब्दुल हमीद
वीर अब्दुल हमीद
मेरे वतन मे हिन्दू मुस्लिम और सिख ईसाई अलग अलग कितने हैं यह तो मैं नहीं जनता पर मैं यह जरूर जनता हूँ कि मेरे देश में अस्सी करोड़ हिन्दुस्तानी बसते हैं, आज मैं उन्ही हिन्दू स्तानियों मे से एक की कहानी सुनाना चाहता हूँ उसका नाम अब्दुल हमीद था, न कोई हीरो थे और न मैं उसे हीरो बनाना चाहता हूँ वह एक मामूली किसान था उसी किसान से आपसे मिलाना चाहता हूँ
— प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ राही मासूम राजा के वीर अब्दुल हमीद रचना से साभार उद्धृत——
बचपन मे ही अब्दुल हमीद की इच्छा वीर सिपाही बनने की थी वह अपनी दादी से कहा करते थे की मैं फौज मे भर्ती होऊँगा दादी जब कहती की पिता की सिलाई मशीन चलाओ तब वे कहते — हम जाइब फौज मे तोहरे रोकले न रुकब हम समझलू ।
दादी को उनकी जिद के आगे झुकना पड़ता और कहना पड़ता – अच्छा अच्छा जाईहा फाउज में , हमीद खुश हो जाते इसी तरह वह अपने पिता मो0 उस्मान से भी फौज मे भर्ती होने की जिद करते और कपड़ा सिलने के धंधे से इनकार कर देते ।
अब्दुल हमीद ने कक्षा चार के बाद पढ़ना छोड़ दिया और खेल कूद और कुश्ती मे ही अपना समय बिताने लगे उन्होंने किसी तरह सिलाई का काम सीख तो लिया पर उसमे उनका मन नहीं लगता था उन्हे पहलवानी विरासत में मिली थी उनके पिता और नाना दोनों ही पहलवान थे वह सुबह जल्दी ही अखाड़े पर पहुच जाते, दंड बैठक करते, आखाड़े की मिट्टी बदन मे मलते और कुश्ती का दाव सीखते शाम को लकड़ी का खेल सीखते और रात को नीद मे फौज और जंग के सपने देखते वह स्वप्न देखते की उनको हाथों मे बारह बोर की दुनाली बंदूक हैं बह स्वप्न मे ही दुश्मनों को भून डालते और स्वप्न को पूरा करने के लिए धामपुर के लोग ढोल तासे के साथ उनका स्वागत करते जाते अपने इसी स्वप्न को पूरा करने के लिए हमीद 12 सितंबर 1994 को फौज मे भर्ती हुए
वे अपने साथियों को भी लड़की का खेल सीखते और निशान लगाते उनके सभी साथी उनकी फुर्ती बहादुरी और सधे निशाने की प्रशंसा करते
संयोग से अब्दुल हमीद का अपना रण कौशल दिखाने का अवसर जल्दी ही मिल गया 1962 ईस्वी मे हमारे देश पर चीन का हमला हुआ हमारे जवानों का एक जत्था चीनी फौज के घेरे मे था उनमे हमीद भी थे लोगों को यह नहीं मालूम था की वह सावला सलोना जवान वीर नहीं परमवीर है, यह उनकी पहली परीक्षा थी वह मौत और शिकस्त के मुकाबले में डटे हुए थे उनके साथ एक एक करके काम होते जा रहे थे उनके शरीर से खून के छूट रहे थे परंतु उनके मन मे कोई कमजोरी नहीं आई वे तनिक भी विचलित नहीं हुए उन्हे उस समय देश के अतिरिक्त अन्य किसी का ध्यान नहीं था वास्तव मे वे तो एक सैनिक थे, असली हिन्दू स्तानी उनकी मशीनगन आग उगलती रही धीरे धीरे उनके गोले समाप्त हो गए अब हमीद क्या करते ? वे मशीनगन दूसरों के हाथ मे कैसे छोड़ते उन्होंने मशीनगन तोड़ डाली और फिर बर्फ की पहाड़ियों मे रेंग कर निकल गए
जानिए आज के आधुनिक दार्शनिक आचार्य प्रशांत जी के बारे में